शनिवार, 2 अप्रैल 2022

2. भगवत कथा और भगवत भक्ति का महात्तम

 वेदव्यास स्तुति,स्कंध1,अध.1: *श्रीमद्भागवत के रूप में आप साक्षात श्री कृष्ण चंद्र जी विराजमान हैं। नाथ !मैंने भवसागर से छुटकारा पाने के लिए आप की शरण ली हैं। मेरा यह मन...

मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकारकी कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्तिसे हृदय आनन्दस्वरूप परमात्माकी उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है।1।

भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति होते ही, अनन्य प्रेमसे उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव हो जाता है ⁠।⁠।2।⁠। 

धर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेपर भी यदि मनुष्यके हृदयमें भगवान्‌की लीला-कथाओंके प्रति अनुरागका उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ⁠।⁠।3।⁠। 

धर्मका फल है मोक्ष⁠। उसकी सार्थकता अर्थप्राप्तिमें नहीं है⁠। अर्थ केवल धर्मके लिये है⁠। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है ⁠।⁠।4।⁠। 

भोगविलासका फल इन्द्रियोंको तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवननिर्वाह⁠। जीवनका फल भी तत्त्वजिज्ञासा है⁠। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है ⁠।⁠।5।⁠। 

तत्त्ववेत्तालोग ज्ञाता और ज्ञेयके भेदसे रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानको ही तत्त्व कहते हैं⁠। उसीको कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान्‌के नामसे पुकारते हैं ⁠।⁠।6।⁠।



प्रकृतिके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम⁠। इनको स्वीकार करके इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र—ये तीन नाम ग्रहण करते हैं⁠। फिर भी मनुष्योंका परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करानेवाले श्रीहरिसे ही होता है ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। 

जैसे पृथ्वीके विकार लकड़ीकी अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि —क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादिके द्वारा अग्नि सद्‌गति देनेवाला है—वैसे ही तमोगुणसे रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुणसे भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान्‌का दर्शन करानेवाला है ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠। 

प्राचीन युगमें महात्मालोग अपने कल्याणके लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान् विष्णुकी ही आराधना किया करते थे⁠। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हींके समान कल्याणभाजन होते हैं ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠। 

जो लोग इस संसारसागरसे पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसीकी निन्दा तो नहीं करते, न किसीमें दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूपवाले—तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियोंकी उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान् और उनके अंश—कलास्वरूपोंका ही भजन करते हैं ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠। 

परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतानकी कामनासे भूत, पितर और प्रजापतियोंकी उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगोंका स्वभावउन (भूतादि)-से मिलता-जुलता होता है ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠।

 वेदोंका तात्पर्य श्रीकृष्णमें ही है⁠। यज्ञोंके उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं⁠। योग श्रीकृष्णके लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मोंकी परिसमाप्ति भी श्रीकृष्णमें ही है ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। 

ज्ञानसे ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णकी ही प्राप्ति होती है⁠। तपस्या श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये ही की जाती है⁠। श्रीकृष्णके लिये ही धर्मोंका अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्णमें ही समा जाती हैं ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠। 

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी मायासे, जो प्रपंचकी दृष्टिसे है और तत्त्वकी दृष्टिसे नहीं है—उन्होंने ही सर्गके आदिमें इस संसारकी रचना की थी ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠।

ये सत्त्व, रज और तम—तीनों गुण उसी मायाके विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान् इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं⁠। वास्तवमें तो वे परिपूर्ण विज्ञानानन्दघन हैं ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। 

अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकारकी लकड़ियोंमें प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है⁠। वैसे ही सबकेआत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परंतु प्राणियोंकी अनेकतासे अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠। 

भगवान् ही सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणोंके विकारभूत भावोंके द्वारा नाना प्रकारकी योनियोंका निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवोंके रूपमें प्रवेश करके उन-उन योनियोंके अनुरूप विषयोंका उपभोग करते-कराते हैं ⁠।⁠।⁠३३⁠।⁠। 

वे ही सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियोंमें लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुणके द्वारा जीवोंका पालन-पोषण करते हैं ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠।

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